सत्य, शाश्वत धर्म और सदाचार ऐसे गुण हैं, जिन्हें सहज भाव से अपनानेवाला मानव भी देवताओं की श्रेणी से उत्तम स्थान प्राप्त कर सकता है। ऐसा पुण्यवान् मानव मात्र अपने कर्तव्य-धर्म का पालन करते हुए ही सप्तर्षियों में स्थान पानेवाले महान् तपस्वी महर्षि विश्वामित्र का अहंकार चूर कर सकता है...यहाँ तक कि सहस्र कोटि पुण्य करके देवराज के दिव्य पद को पानेवाले देवलोक के सिंहासन तक भी हिला सकता है। युगों की गणना में प्रथम स्थान पर स्मरण किए जानेवाले सतयुग में ऐसा घटित हो चुका है और ऐसा करनेवाले थे—सूर्यवंश के प्रतापी राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र। जब राजा हरिश्चंद्र के नाम-यश की चर्चा होती है तो उनके नाम-यश के साथ यदि ‘सत्यवादी’ शब्द का प्रयोग न किया जाए तो प्रतीत होता है कि इतिहास के किसी अन्य राजा का वर्णन किया जा रहा है। इसके विपरीत यदि केवल ‘सत्यवादी’ राजा का वर्णन हो तो स्पष्ट संकेत सतयुग के राजा सत्यवादी हरिश्चंद्र की ओर ही हो रहा प्रतीत होता है। यहाँ तक कि सूर्यवंशी राजा हरिश्चंद्र और शब्द ‘सत्यवादी’ एक-दूसरे के पर्याय बन गए, लगते हैं। ऐसा हुआ राजा हरिश्चंद्र के द्वारा सत्य, शाश्वत धर्म और सदाचरण जैसे गुणों को अपने जीवन में उतारने में। सत्यवादी हरिश्चंद्र ने अपने शयनकक्ष में केवल एक स्वप्न देखा और उस स्वप्न में दिए गए वचन की लाज रखने के लिए उन्होंने अपने राज्य का परित्याग कर दिया, अपनी प्रिय रानी तारामती और पुत्र रोहिताश्व को ही नहीं, अपितु स्वयं को भी काशी के बाजार में बेच दिया। इतना होने पर भी उन्होंने सत्य और सदाचरण के गुणों का त्याग नहीं किया तथा शाश्वत धर्म पर अटल रहते हुए अपने कर्तव्य को ही सर्वोपरि माना। राजा हरिश्चंद्र के इन्हीं गुणों के कारण उनकी परीक्षा लेनेवाले महर्षि विश्वामित्र को अंततः कहना पड़ा, ‘‘सत्यवादी हरिश्चंद्र! मैं हार गया। तुम और तुम्हारा सत्यव्रत जीत गया।’’
इंद्र की शंका
अलकापुरी में देवराज इंद्र का भव्य दरबार लगा हुआ था। रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठे देवराज की भृकुटि तनी हुई थी और वे क्रोध से अपने समक्ष अपराधी भाव से खड़ी सुगंधा नाम की अप्सरा को देख रहे थे। दरबार में अन्य देवतागण भी उपस्थित थे। सभी मूकदर्शक बने देवराज के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
‘‘सुगंधा! तुमने यह देवलोक के नियमों के विरुद्ध कृत्य किया है।’’ देवराज ने रोषपूर्ण स्वर में कहा, ‘‘हम किसी को भी अनुशासनहीन नहीं होने दे सकते। हमारी अवज्ञा करके तुमने बहुत बड़ा अपराध किया है। हमने तुम्हें मात्र दो दिवस के भ्रमण पर मृत्युलोक भेजा था और तुम हो कि आज लौट रही हो।’’
‘‘देवराज!’’ सुगंधा विनयशील स्वर में बोली, ‘‘मैं कल सायं ही लौट रही थी, परंतु मेरे समक्ष ऐसी स्नेहिल विवशता आ गई कि जिसके कारण मुझे एक रात्रि और रुकना पड़ा। एक बालक के स्नेह ने मुझे यह अपराध करने पर विवश कर दिया, जिसका कोई भी दंड मुझे सहर्ष स्वीकार है।’’
‘‘बालक! कौन बालक? क्या एक मानव-शिशु तुम्हें देव-पुत्रों से भी अधिक स्नेहपूर्ण लगा?’’ देवराज ने प्रश्न किया।
‘‘देवराज! क्षमा चाहती हूँ, परंतु सत्य तो यही है कि बालक रोहिताश्व किसी भी प्रकार से देव-पुत्रों से कम नहीं है। उसके संस्कार, उसकी वाणी, उसकी चपलता और...और उसकी गंभीरता सब कुछ तो अद्वितीय है। वह जब बालसुलभ चंचलता करता है तो मन मोह लेता है। वह सत्य, धर्म, न्याय इत्यादि की गंभीरता से विवेचना करता है तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो कोई श्रेष्ठ विद्वान् हो।’’
‘‘हूँ ऽऽऽ। कौन है यह रोहिताश्व?’’
‘‘वह रघुकुल वंश के भूषण, सत्यसारथी, धर्मपरायण राजा हरिश्चंद्र का पुत्र है देवराज! उनकी कीर्ति तो तीनों लोकों में फैली है।’’
‘‘हम जानते हैं सुगंधे! रघुकुल के प्रतापी राजाओं की शृंखला में राजा हरिश्चंद्र उच्चकोटि के राजा हैं।’’ देवराज बोले, ‘‘उनके धर्म, सत्य और वचन की कीर्ति त्रिलोक में फैली है, परंतु किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके पिता राजा त्रिशंकु के नाम से अपयश भी जुड़ा है।’’
‘‘देवराज! मैं इस विषय में कुछ भी कहने में असमर्थ हूँ।’’ सुगंधा ने कहा, ‘‘मैं जब अयोध्या नगरी पहुँची तो ऐसा प्रतीत हुआ कि वह हमारी अलकापुरी की ही प्रतिकृति है। भव्यता, वैभव और जन-व्यवहार में ऐसा ही लगा, मानो वहाँ भी देवता ही वास करते हैं।’’
यह सुनकर देवराज की भृकुटी और तन गई। ‘‘तुम यह कहना चाहती हो कि राजा हरिश्चंद्र इतने सामर्थ्यवान हो गए कि उन्होंने मृत्युलोक में भी स्वर्ग का निर्माण कर दिया।’’ देवराज बोले।
‘‘नारायण-नारायण!’’ तभी सभा में यह सुमधुर ध्वनि गूँजी, जो वहाँ देवर्षि नारद के पधारने का संकेत थी। एक स्थान पर ढाई घड़ी से अधिक न ठहरनेवाले देवर्षि कभी भी और कहीं भी आ-जा सकते थे।
एक हाथ में वीणा और दूसरे हाथ में करताल लिये देवर्षि उन दिव्य वाद्ययंत्रों की एक अनाद ध्वनि से समस्त वातावरण को प्रभुमय बना देते थे। उनके श्रीमुख से निरंतर ‘नारायण-नारायण’ का शब्द घोष प्रवाहित होता था।
देवर्षि के स्वागत में इंद्र सहित सभी देवगणों ने आसन छोड़कर उनका अभिवादन किया।
‘‘सर्वे सुखंति भवः।’’ देवर्षि ने सबको आशीर्वाद दिया, ‘‘देवराज! आप यह कैसी विचित्र बात कर रहे हैं। राजा हरिश्चंद्र की सामर्थ्य को आप सीमित क्यों समझ रहे हैं। देवराज! स्वर्ग का निर्माण तो कहीं भी संभव है। धर्म, सत्य, न्याय और श्री ही तो स्वर्ग का सुख अनुभव कराती हैं और इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि राजा हरिश्चंद्र के पास ये सब गुण हैं।’’
‘‘देवर्षि!’’ देवराज झेंपकर बोले, ‘‘मेरा यह मंतव्य नहीं था। आपने सत्य कहा है कि स्वर्ग की अनुभूति इन्हीं गुणों से होती है। राजा हरिश्चंद्र निश्चय ही नृपश्रेष्ठ हैं।’’
‘‘नृपश्रेष्ठ ही नहीं, वो तो नरश्रेष्ठ हैं। वे सर्वश्रेष्ठ हैं। सत्य उनकी आत्मा और न्याय उनका वास है। वचन के प्रति उनकी आस्था उनकी शक्ति है तो कर्तव्यपरायणता उनका भजन है। धैर्य और संकल्प के धनी राजा हरिश्चंद्र निश्चय ही दिव्य पुरुष हैं और इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी इतनी विशेषताएँ व गुण उन्हें इंद्रासन का अधिकारी बना देंगे।’’
देवराज इंद्र के मुख पर चिंता के भाव दृष्टिगोचर होने लगे।
‘‘देवराज! सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की सामर्थ्य पर संदेह न करें।’’ देवर्षि उनके मनोभावों को ताड़कर मुसकरा उठे, ‘‘उन महाविभूति के आतिथ्य के आकर्षण में यदि रूपसी सुगंधा से यह छोटा सा अपराध हो गया है तो इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं। हम स्वयं उन यशस्वी राजा के समक्ष जाकर अपने समय की सीमा भूल जाते हैं और जब हमारे मस्तक में श्राप के अनुसार पीड़ा होने लगती है, तभी वहाँ से प्रस्थान करते हैं।’’
‘‘देवर्षि! सुगंधा ने देवलोक का नियम भंग किया है।’’ देवराज ने कहा, ‘‘और इसका दंड तो इसे मिलना ही चाहिए।’’
‘‘नारायण-नारायण!’’ देवर्षि मुसकराते हुए बोले, ‘‘यह तो आपका अधिकार है और न्याय-नीति है। इसमें हम या अन्य कोई हस्तक्षेप कैसे कर सकता है। हमारा तात्पर्य तो राजा हरिश्चंद्र के विषय में आपको अवगत कराना मात्र था। उन सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र ने रघुकुल की परंपरा को आगे बढ़ाया है। उनकी कीर्ति तीनों लोक में फैल रही है।’’
‘‘अवश्य देवर्षि! ऐसा ही है।’’ देवराज ने स्वीकार किया, ‘‘हमें प्रसन्नता है कि राजा हरिश्चंद्र सत्य और धर्म की ध्वजा सँभालकर मानवता को जीवन-मूल्यों के आदर्शों से अवगत करा रहे हैं। हम भी उन नरश्रेष्ठ राजा के दर्शन को अवश्य ही जाएँगे।’’
‘‘नारायण-नारायण!’’ देवर्षि ने कहा और वहाँ से प्रस्थान कर गए।
कई क्षणों तक देवसभा में सन्नाटा छाया रहा। ‘‘सुगंधे! यद्यपि देवर्षि के अनुसार तुमने सहज विवश अपराध किया है, परंतु देवलोक के नियमों में इसे अनुशासनहीनता कहते हैं।’’ देवराज ने सभा में पसरे सन्नाटे को भंग करते हुए कहा, ‘‘अतः दंड तो तुम्हें अवश्य ही मिलेगा।’’
‘‘देवराज! मैं दंड के लिए सहर्ष तैयार हूँ।’’ सुगंधा ने हाथ जोड़ते हुए कहा।
‘‘तुम्हारा यही दंड है कि तुम्हें सात दिवस के लिए इस सभा से निष्कासित किया जाता है और साथ ही यहाँ के सभी सुखों से भी वंचित किया जाता है।’’
सुगंधा ने सहर्ष दंड स्वीकार किया। उसके मुख पर पीड़ा या अपमान का कोई भाव नहीं था, जैसा कि ऐसे दंड के मिलने के उपरांत अप्सराओं में देखा जाता था। वह मुसकराए जा रही थी।
‘‘सुगंधे!’’ देवराज चकित होकर बोले, ‘‘इस दंड के उपरांत भी तुम्हारी यह प्रसन्नचित्त मुसकान हमें आश्चर्य में डाल रही है।’’
‘‘देवराज! अपराध का दंड मिलता ही है। इसमें अपराधी को अप्रसन्न होने से क्या मिलता है। पीड़ा और भय—मैं इन कष्टों में स्वयं को क्यों धकेलूँ? आज प्रातःकाल तक मैंने जिस आनंद और सुख को भोगा है, उसकी तुलना में यह दंड गौण है। अयोध्या के महल, उद्यान और नगर-भ्रमण के साथ राजकुमार रोहित का वात्सल्य मुझे अभी तक अभिभूत कर रहा है। राजा हरिश्चंद्र के गुणों ने मेरा हृदय जीत लिया है। राजरानी तारामती के स्नेह से मैं गद्गद हो उठी हूँ।’’ सुगंधा बोली।
देवराज इंद्र ने मौन रहकर सुगंधा को वहाँ से जाने का संकेत किया। सुगंधा तो वहाँ से चली गई, किंतु अपने पीछे सन्नाटा छोड़ गई। देवराज के मन में एक विचित्र सा भय अँगड़ाई ले रहा था। देवर्षि नारद ने राजा हरिश्चंद्र के उज्ज्वल चरित्र का बखान कर उन्हें भावी इंद्र की संज्ञा तक दे दी। सुगंधा ने भावमय ढंग से उसकी पुष्टि कर दी। देवराज की शंकालु प्रवृत्ति ने उन्हें असहज कर दिया था।
‘‘देवराज!’’ वरुण देव ने अपने आसन से उठकर कहा, ‘‘क्षमाप्रार्थी हूँ, परंतु आज हम सब दरबार में एक विशेष विषय पर चर्चा करने के लिए एकत्र हुए हैं।’’
‘‘हाँ वरुण देव!’’ देवराज ने लंबी श्वास छोड़कर कहा, ‘‘आज हम उस विशेष वार्षिक सभा के आयोजन के संबंध में विचार-विमर्श करनेवाले हैं, जो यहाँ शीघ्र ही आयोजित होनेवाली है। जैसा कि आप सभी जानते हैं कि मानवता के कल्याण हेतु हम सभी देवगण और पृथ्वीलोक के चुने हुए ऋषि-महर्षि आपस में विचार-विमर्श करते हैं, वह समय अब शीघ्र आनेवाला है। अतः उन सभी विद्वान् ऋषि-महर्षियों को सादर निमंत्रण भेजा जाए, जो पृथ्वी पर सत्य, धर्म और भगवद्भक्ति की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं।’’
‘‘जो आज्ञा देवराज!’’
‘‘साथ ही उस विशिष्ट सभा की उचित व्यवस्था भी की जाए और सदैव की भाँति आप सब अपने-अपने कार्य करें।’’ देवराज ने आदेश दिया।
सभी देवताओं ने देवराज की बात को ध्यान से सुना और सिर हिलाकर सहमति प्रदान की। देवराज ने उसी समय अपना सिंहासन छोड़कर सभा-विसर्जन का संकेत दिया। सभी देवगणों ने आश्चर्य में पड़कर अपने-अपने आसन छोड़ दिए। देवराज वहाँ से प्रस्थान कर गए।
देवराज के मन-मस्तिष्क में एक विचित्र-सा भय बढ़ता ही जा रहा था और इसी कारण उनका हृदय सभा में नहीं लग रहा था। राजा हरिश्चंद्र अनायास ही उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वी प्रतीत होने लगे थे। देवराज को एक भावी संकट आने की आहट मिल रही थी और अब वे किसी भी युक्ति से उस संकट का कोई समाधान खोजना चाहते थे।
देवलोक की उस विशेष सभा में सभी देवताओं, यक्षों, गंधर्वों सहित पृथ्वीलोक के विद्वान् मनीषी-महर्षि भी उपस्थित थे। इसमें महर्षि वशिष्ठ, महर्षि विश्वामित्र, महर्षि कपिल, महर्षि अगस्त्य जैसे लोककल्याण को समर्पित योगी-मुनि आदि प्रमुख थे। देवराज इंद्र अपने आसन पर विराजमान थे।
‘‘सभा में उपस्थित देवगणों और महर्षियों का स्वागत करते हुए हम सबके प्रति आभार प्रकट करते हैं कि आप सब लोककल्याण की कामना हेतु इस विशेष सभा में उपस्थित हुए।’’ देवराज इंद्र ने वार्त्ता आरंभ की, ‘‘जैसा कि आप सभी जानते हैं, हम सभी श्री प्रभु की इच्छा और आदेश पर उनकी सबसे सुंदर कृति मानव के कल्याण हेतु नियुक्त हैं। पृथ्वीलोक के मानवों में धर्म एवं सत्य की धारणा बनी रहे, इसके लिए हम सब प्रयासरत रहते हैं। पृथ्वीलोक पर माया अत्यंत प्रभावी होकर सीधे सरल मानवों को भ्रमित कर देती है और मानव-समाज का विकास प्रभावित हो जाता है। किन्हीं विशेष कारणों से भगवान् श्रीहरि ने द्वापर युग से पूर्व त्रेता युग को सृष्टि के शासन हेतु आमंत्रित किया और इस युग में आसुरी शक्तियों और माया के अधिक प्रभावी हो जाने की आशंका है। अतः हम सभी को इस भावी संकट का समाधान खोजना है।’’
देवराज के विचारों को सभी ने गंभीरता से लिया।
‘‘युग-परिवर्तन के इस क्रम को जगत्-नियंता ने निश्चित ही इस कारण से बदला है कि संभवतः द्वापर के लिए एक ठोस आधार का निर्माण हो सके और त्रेता के माध्यम से ऐसी पुण्यात्माओं को द्वापर का नेतृत्व सौंपा जा सके, जो भावी समय के अनुसार मानवता की रक्षा करने में सफल हों।’’ देवराज इंद्र ने बात को आगे बढ़ाया, ‘‘जगत् के वर्तमान स्वरूप में हो रहे परिवर्तनों का सबसे विपरीत प्रभाव पृथ्वीलोक पर होने की आशंका रहती है। अतः आप सभी पूज्य जन जगत् के कल्याण हेतु आयोजित इस सभा में अपने अमूल्य विचार प्रस्तुत करें, जिससे हम युग-परिवर्तन के प्रभावों से परिचित हो सकें।’’
सभी श्रुतिमग्न देवों और महर्षियों ने सिर हिलाकर सहमति जताई।
‘‘देवराज!’’ महर्षि विश्वामित्र ने गंभीर वाणी में कहा, ‘‘युग-परिवर्तन के प्रभाव तो देवात्मा और जीवात्मा दोनों पर होते हैं और इन प्रभावों से आत्मा अपने मूल उद्देश्य से भटककर आवागमन के चक्र में फँस जाती है। आपकी आशंका उचित है कि पृथ्वीलोक पर इस परिवर्तन के प्रभाव अवश्य चिंतित करनेवाले होंगे। आशा, तृष्णा जीवात्मा को लुभाने को सदैव ही प्रयासरत रही हैं और यह परिवर्तन सांसारिकता में बढ़ते जा रहे विलासितापूर्ण तत्त्वों को अधिक सक्रिय करने में सहायक होगा।’’
‘‘सम्मानित देवगणो और पूज्य महर्षियो!’’ महान् मुनि कपिल ने गंभीर वाणी में कहा, ‘‘आप सभी का कथन सत्य है, परंतु यह भी अकाट्य सत्य है कि परिवर्तन संसार का नियम है। पृथ्वीलोक के लिए आप सबकी चिंता आपके कर्तव्यों के अनुसार उचित है, परंतु यह कहना उचित नहीं कि पृथ्वीलोक पर रहनेवाले शीघ्रता से समर्पण कर देते हैं। विधाता ने इन परिवर्तनों को मानव की परीक्षा का माध्यम बनाया है और इनसे मानव को महामानव बनने का अवसर दिया है। जो जीवात्मा इन परिवर्तनों से अप्रभावित रहकर अपने सत्य, धर्म और कर्तव्य पर अडिग रहेगी, उसकी कीर्ति युगों-युगों तक भूमंडल पर रहेगी।’’
‘‘देवराज!’’ महर्षि विश्वामित्र ने भी इस कथन का समर्थन किया, ‘‘महामुनि कपिल सत्य कह रहे हैं। ये परिवर्तन परीक्षक की भाँति मानव की निष्ठा, धैर्य और धर्म को परखते हैं और यह भी सत्य है कि जब तक पृथ्वी पर राजा रघु की वंश परंपरा रहेगी, तब तक अधर्म, असत्य और अन्याय मानव-समाज का अहित नहीं कर सकते।’’
‘‘पूज्य महर्षि वशिष्ठ!’’ देवराज इंद्र ने महर्षि वशिष्ठ से विनय की, ‘‘आप तो राजा श्रेष्ठ रघु के कुलगुरु हैं। रघुकुल के महान् राजाओं की शृंखला में आपने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। धर्म, सत्य और मानवता की रक्षा में रघुकुल सदैव अग्रणी रहा है। क्या अब भी उस कुल के वंशजों में सत्य एवं धर्म के प्रति वैसी ही आसक्ति है?’’
‘‘देवराज!’’ महर्षि वशिष्ठ दृढ़ स्वर में बोले, ‘‘रघुकुल की रीति तो समस्त लोकों में अनुसरणीय है। वह अपरिवर्तनीय विचारधारा का वंश है, जिसके पूर्वज एवं वंशज धर्म और सत्य की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति भी देने को तत्पर रहते हैं। रघुकुल की परंपरा पृथ्वीलोक पर सत्य की सारथी और धर्म की ध्वजा है। जब तक रघुकुल के वंशज सत्य और धर्म का अभेद्य कवच धारण किए खड़े हैं, तब तक मानवता पूर्ण सुरक्षित है।’’
‘‘पूज्य महर्षि!’’ देवराज ने कहा, ‘‘इस समय रघुकुल की परंपरा का दायित्व राजा हरिश्चंद्र के कंधों पर है और हमें आशा है कि राजा हरिश्चंद्र सत्य और धर्म के रक्षक सिद्ध होंगे। उनकी कीर्ति चहुँओर फैली हुई है। वे श्रेष्ठ राजा मानवता की रक्षा, धर्मपरायणता और सत्यवादिता में श्रेष्ठों से भी सर्वश्रेष्ठ हैं, परंतु हमारी आशंका परिवर्तनों से होनेवाले प्रभावों को लेकर है, जो रघुकुल के महान् राजा त्रिशंकु के समय में भी देखने को मिले थे।’’
‘‘देवराज!’’ महर्षि वशिष्ठ ने कहा, ‘‘यद्यपि राजा त्रिशंकु ने सदेह स्वर्ग आने के प्रयास करके मानवीय महत्त्वाकांक्षाओं का परिचय दिया था, फिर भी इसे एक त्रुटि कहा जा सकता है, क्योंकि यह नियमों के विरुद्ध प्रयास था, परंतु राजा त्रिशंकु की उस त्रुटि या भूल को रघुकुल की परंपराओं में अवरोध कदापि नहीं कहा जा सकता। आज राजा हरिश्चंद्र की सत्यवादिता पृथ्वीलोक पर सत्य का पर्याय है। लोग विश्वास देने-दिलाने के लिए उन धर्माधिकारी राजा की सौगंध उठाते हैं। राजा हरिश्चंद्र को भूमंडल पर यशकीर्ति उनके धर्म और सत्य के कारण ही प्राप्त है। स्वप्न में भी असत्य और मिथ्या भाषण से दूर रहनेवाले नृप हरिश्चंद्र महाविद्वान् और सर्वप्रिय राजा हैं।’’
‘‘अर्थात् हम सब जिन परिवर्तनों के प्रभाव से भयग्रस्त हो रहे हैं, वह हमारे लिए उतनी चिंता का विषय नहीं, जितना हम सोच रहे हैं। सत्यवादी एवं धर्मप्रिय राजा हरिश्चंद्र के होते माया और मिथ्या पृथ्वी पर प्रभावी नहीं होंगे।’’ देवराज ने कहा, ‘‘अब हमें कोई संदेह नहीं रहा कि पृथ्वीलोक पर युग-परिवर्तन का आंशिक असर हो तो हो, किंतु व्यापक प्रभाव नहीं हो सकता।’’
‘‘संदेह तो किसी को नहीं होना चाहिए देवराज!’’ महर्षि विश्वामित्र ने कहा,
‘‘सत्य का पालन करनेवाले रघुवंशी अपनी परंपरा और संकल्प पर अडिग रहते हैं, परंतु हमें इसी से संतुष्ट रहकर अपने दायित्वों को पूर्ण हो चुका नहीं समझना चाहिए। यह विचारगोष्ठी सभी पहलुओं पर मनन करने के लिए आयोजित हुई है। अतः हमें ऐसा ही करना चाहिए।’’
‘‘महर्षि! आप परम् विद्वान हैं।’’ देवराज इंद्र ने कहा, ‘‘आपकी व्यापक दृष्टि प्रत्येक विषय की गहराई तक जाने में सक्षम है। निश्चय ही आपने उत्तम सुझाव दिया है कि हमें अपने दायित्वों की पूर्ति इसी आधार पर पूर्ण होने की मानसिकता से बचना होगा कि पृथ्वीलोक राजा हरिश्चंद्र के सुशासन में सुरक्षित है। अतः आप ही अब इसके विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालें।’’
‘‘देवराज! जैसा कि सभी जानते हैं कि राजा त्रिशंकु सहित सभी रघुवंशी राजा सत्य और धर्म का पूर्ण पालन करनेवाले रहे हैं। वचनों के लिए अपने प्राण भी बलिदान कर देनेवाले रघुवंशी मानवता के रक्षक और संरक्षक रहे हैं। फिर भी राजा त्रिशंकु ने समय-चक्र के फेरे में फँसकर अपयश को आमंत्रण दिया। समय-चक्र की यह विचित्र गति नृपश्रेष्ठ त्रिशंकु से न भाँपी गई। तो फिर इस संभावना से अब क्यों मुँह मोड़ा जा सकता है?’’
‘‘आप सत्य कह रहे हैं महर्षि!’’ देवराज ने समर्थन करते हुए कहा, ‘‘वैसे भी व्यक्ति की निष्ठा, धैर्य और संकल्प का वास्तविक प्रदर्शन तो दीनता में हो पाता है। वैभव, ऐश्वर्य और श्री के रथ पर आरूढ़ होकर तो कोई भी धर्म और सत्य का वाहक बन जाता है। अभाव के संकटों में धर्म, सत्य और वचनों का पालन करना सबके लिए सरल नहीं है।’’
‘‘सुरपति!’’ महर्षि वशिष्ठ के स्वर में रोष झलक उठा, ‘‘आप रघुकुल के क्षत्रिय शिरोमणि प्रतापी नरेशों को संपन्नता के आधार पर धर्म और सत्य के पालनहार कहकर उस कीर्तिवान् वंश का अपमान कर रहे हैं। सत्य और धर्म रघुकुलवंशियों के हृदय में रहता है, राजकोष में नहीं। राजा हरिश्चंद्र को श्री और वैभव से कहीं अधिक रघुकुल की मर्यादाओं का ज्ञान है और उनकी रक्षा वे श्रीविहीन होकर करने में भी सक्षम हैं। चाहे जितनी भी विपन्न स्थिति हो जाए, परंतु राजा हरिश्चंद्र कदापि सत्य और धर्म से विमुख नहीं हो सकते।’’
‘‘महर्षि वशिष्ठ!’’ विश्वामित्र ने विनयपूर्वक कहा, ‘‘आप क्रोधित न हों। देवराज इंद्र ने सभा के विषय के अनुसार विचार प्रस्तुत किया है और इसमें इनका तनिक भी व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं है। आप प्रकांड विद्वान् हैं और जानते हैं कि सनातन काल से ही सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म में प्रभुता के लिए द्वंद्व होता रहा है। हम सभी जनकल्याण की इच्छा से सत्य और धर्म का प्रचार, प्रसार और रक्षा करने में जुटे हैं। असत्य हमारा प्रबल शत्रु है और इसे हम कदापि निर्बल समझने की भूल नहीं कर सकते। इसके विरुद्ध हम सभी एकजुट हैं और धर्मप्रिय एवं सत्यप्रिय राजा हरिश्चंद्र को हम अपना नेतृत्व सौंपने का विचार कर रहे हैं। पृथ्वीलोक पर असत्य और अधर्म का सामना उन्हीं नृपश्रेष्ठ से होगा और हमें विश्वास है कि रघुकुल तिलक राजा हरिश्चंद्र कदापि असत्य-अधर्म को विजयी नहीं होने देंगे, परंतु राजा हरिश्चंद्र के इन सद्गुणों से इस सभा के सभी देवों, ऋषियों, यक्षों, गंधर्वों को परिचित कराना आवश्यक है।’’
‘‘यही हमारा तात्पर्य था मुनिश्रेष्ठ!’’ देवराज इंद्र ने हाथ जोड़कर कहा, ‘‘आप सभी जानते हैं कि पृथ्वीलोक एकमात्र ऐसा लोक है, जहाँ विविधता है। वहाँ गुण-अवगुण, राग-द्वेष, हर्ष-विषाद सभी का वास है। जब भी द्वेष, अवगुण और विषादों की प्रधानता होती है, तभी मानवता संकट में पड़ जाती है। नियम के अनुसार इस संकट से निपटने का प्रथम कर्तव्य तो मानव प्रतिनिधियों का ही है। यदि मानव इन संकटों से विजयी नहीं होता तो फिर वह हमें पुकारता है। यदि हम भी असफल होते हैं तो फिर हम श्रीहरि की शरण में जाते हैं और तब श्रीहरि नाना रूप लेकर पृथ्वी को पापमुक्त करते हैं। इस समय त्रेता के प्रभाव से पाप व अधर्म को बल मिल रहा है और इसके विनाश के लिए राजा हरिश्चंद्र को ही आगे आना है तो हम चाहते हैं कि राजा हरिश्चंद्र सफलतापूर्वक सत्य का साम्राज्य स्थापित किए रखें और इसके लिए तो संतुष्ट होना होगा।’’
‘‘देवराज! महर्षि विश्वामित्र!!’’ महर्षि वशिष्ठ ने कहा, ‘‘आपका प्रत्येक कथन विषय के अनुसार सत्य है और यह भी सत्य है कि मात्र हमारे आश्वासन या विश्वास पर ही इतना बड़ा कार्य नहीं छोड़ा जाना चाहिए। सभी की संतुष्टि आवश्यक है। आप जिस प्रकार चाहें, संतुष्टि कर सकते हैं। हमारा विश्वास है कि धर्मध्वजा राजा हरिश्चंद्र आपकी सभी कसौटियों पर खरे उतरेंगे।
’’ ‘‘हे मुनिश्रेष्ठ!’’ देवराज प्रसन्न होकर बोले, ‘‘अब कृपा करके ऐसा कोई मार्ग भी सुझाएँ, जिससे हम सबकी संतुष्टि हो सके।’’
‘‘देवराज! किसी की समस्त समस्याओं का आकलन तो परीक्षा से ही संभव हो पाता है। कुंदन बनने के लिए स्वर्ण को अग्नि में तपना पड़ता है।’’ महर्षि वशिष्ठ ने सलाह दी।
‘‘उत्तम विचार है।’’ देवराज उतावले होते हुए बोले, ‘‘राजा हरिश्चंद्र सत्य, धर्म और वचन के पुरोधा हैं तो हम उनके इन गुणों की परीक्षा ले सकते हैं।’’
‘‘देवराज! ये गुण कोई साधारण गुण नहीं हैं। अतः किसी साधारण परीक्षा से हमें उचित परिणाम नहीं मिल सकता।’’ महर्षि विश्वामित्र ने कहा, ‘‘और कठिन परीक्षा कई बार गंभीर परिणाम देती है।’’
‘‘महर्षि विश्वामित्र!’’ महर्षि वशिष्ठ दृढ़ स्वर में बोले, ‘‘वह परीक्षक क्या, जो अपनी परीक्षा से परीक्षार्थी के समस्त ज्ञान-विज्ञान और क्षमताओं का आकलन न कर सके। परीक्षा में दयालुता का समावेश सदैव परिणाम को प्रभावित करता है और कितने ही प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं। अतः राजा हरिश्चंद्र की कठिन-से-कठिन परीक्षा लीजिए। आपकी कोई भी परीक्षा उस धर्म-स्तंभ को अपने स्थान से तिल भर भी नहीं हिला सकती।’’
‘‘हे महर्षि!’’ देवराज इंद्र ने विश्वामित्र से विनय की, ‘‘आप सर्वज्ञ विद्वान् हैं और यह कार्य आपके अतिरिक्त भली-भाँति और कौन कर सकेगा। मानवता की रक्षा में भावी नियुक्ति राजा हरिश्चंद्र की होनी है तो आप ही इस कार्य को पूर्ण करें। राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा लेकर सबको संतुष्ट करें।’’
‘‘देवराज! आपके आदेश का पालन होगा।’’ महर्षि विश्वामित्र ने कहा, ‘‘आपने हमें यह उत्तरदायित्व सौंपा है, हम इसके आभारी हैं। फिर भी हम सभा में यह स्पष्ट करना उचित समझते हैं कि हम बहुत कठोर परीक्षक हैं और हमारे प्रश्न बड़े कठिन व निर्दयी होते हैं, जिनसे जूझने के लिए असीम धैर्य और अतुलनीय संकल्प की आवश्यकता होती है। हम जब कार्य आरंभ करेंगे तो वह तभी समाप्त होगा, जब उसका परिणाम स्पष्ट हो जाएगा। हमें आप सबका सहयोग भी चाहिए।’’
‘‘महर्षि! आप एक महान् उद्देश्य के लिए नियुक्त किए गए हैं।’’ देवराज ने स्पष्ट किया, ‘‘परीक्षक के रूप में हमें आपसे आशा है कि आप परीक्षार्थी की समग्र क्षमताओं को नीतिगत परखेंगे। किसी मानव को महामानव बनानेवाला पथ अत्यंत दुर्गम होता है और यह वैसा ही कार्य है। अतः आप निश्चिंत रहें कि आपके कार्य में हर कोई आपका पूर्ण सहयोग करेगा। आप भी इतना स्मरण रखें कि परीक्षा के प्रारूप में सत्य, धर्म और वचन के प्रति परीक्षार्थी का संकल्प पूरी तरह से स्पष्ट हो जाए।’’
‘‘अवश्य देवराज! आप स्वयं देखेंगे कि हम जगत् के कल्याण के लिए इस महान् कार्य को कितनी दक्षता से परिणाम तक पहुँचाते हैं।’’
‘‘हमें आपसे यही आशा है महर्षि! अब हम समझते हैं कि सभा का उद्देश्य पूर्ण हो चुका है और सभी आवश्यक तथ्यों पर विचार हो चुका है। यदि फिर भी किसी के हृदय में कोई अन्य विचार हो तो उसे अवश्य ही सामने रखें।’’
कहीं से कोई प्रश्न या विचार न आया।
इस प्रकार देवसभा का विसर्जन हो गया। देवराज इंद्र का हृदय प्रसन्नता से पुलकित हो उठा था कि उन्होंने बड़े ही नीतिगत ढंग से अपनी समस्या का समाधान कर दिया था।